अँधेरे की परते हटाकर
ढूंडता हूँ सायों को
मिल जाती है उनकी आहटे
कभी निकट बहुत
कभी दूर बहुत
कभी अपनी ही पलकों पर
कभी क्षितिज के पार...
घंटो बात बतियानेवाले साये
अजीब सा मौन पालते है कभी
तो एक शब्द को तरसानेवाले साये
गप्पे हांकने लगते है कभी...
बिना चेहरे के सायें
कभी दुबले कभी गोलमटोल
कभी नाटे कभी लम्बे
लेकिन सबके सब काले
अँधेरे में भी चमकनेवाले...
आँखमिचौली खेलते खेलते
थके हारे सायें
बैठ जातें है
जहां जगह मिली वही पर
तभी निहारने लगता हूँ सायों के चेहरे
और पाता हूँ अपनी ही परछाई
अनगिनत सायों से ढकी हुई
- श्रीपाद कोठे
नागपुर
रविवार, २२ जून २०१४
ढूंडता हूँ सायों को
मिल जाती है उनकी आहटे
कभी निकट बहुत
कभी दूर बहुत
कभी अपनी ही पलकों पर
कभी क्षितिज के पार...
घंटो बात बतियानेवाले साये
अजीब सा मौन पालते है कभी
तो एक शब्द को तरसानेवाले साये
गप्पे हांकने लगते है कभी...
बिना चेहरे के सायें
कभी दुबले कभी गोलमटोल
कभी नाटे कभी लम्बे
लेकिन सबके सब काले
अँधेरे में भी चमकनेवाले...
आँखमिचौली खेलते खेलते
थके हारे सायें
बैठ जातें है
जहां जगह मिली वही पर
तभी निहारने लगता हूँ सायों के चेहरे
और पाता हूँ अपनी ही परछाई
अनगिनत सायों से ढकी हुई
- श्रीपाद कोठे
नागपुर
रविवार, २२ जून २०१४
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